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ए॒षा दि॒वो दु॑हि॒ता प्रत्य॑दर्शि॒ ज्योति॒र्वसा॑ना सम॒ना पु॒रस्ता॑त्। ऋ॒तस्य॒ पन्था॒मन्वे॑ति सा॒धु प्र॑जान॒तीव॒ न दिशो॑ मिनाति ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

eṣā divo duhitā praty adarśi jyotir vasānā samanā purastāt | ṛtasya panthām anv eti sādhu prajānatīva na diśo mināti ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒षा। दि॒वः। दु॒हि॒ता। प्रति॑। अ॒द॒र्शि॒। ज्योतिः॑। वसा॑ना। स॒म॒ना। पु॒रस्ता॑त्। ऋ॒तस्य॑। पन्था॑म्। अनु॑। ए॒ति॒। सा॒धु। प्र॒जा॒न॒तीऽइ॑व। न। दिशः॑। मि॒ना॒ति॒ ॥ १.१२४.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:124» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:7» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:18» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे ही (एषा) यह प्रातःसमय की वेला (ज्योतिः) प्रकाश को (वसाना) ग्रहण करती हुई (समना) संग्राम में (दिवः) सूर्य के प्रकाश की (दुहिता) लड़की सी हम लोगों ने (पुरस्तात्) दिन के पहिले (प्रत्यदर्शि) प्रतीति से देखी वा जैसे समस्त विद्या पढ़ा हुआ वीर जन (ऋतस्य) सत्य कारण के (पन्थाम्) मार्ग को (अन्वेति) अनुकूलता से प्राप्त होता वा (साधु) अच्छे प्रकार जैसे हो वैसे (प्रजानतीव) विशेष ज्ञानवाली विदुषी पढ़ी हुई पण्डिता स्त्री के समान प्रभात वेला (दिशः) दिशाओं को (न) नहीं (मिनाति) छोड़ती वैसे अपना वर्त्ताव वर्त्तती हुई स्त्री उत्तम हों ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अच्छे नियम से वर्त्तमान हुई प्रातः समय की वेला सबको आनन्दित कराती और वह अपने उत्तम स्वभाव को नहीं नष्ट करती, वैसे स्त्री लोग गिरस्ती के धर्म में वर्त्तें ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

यथैवैषा ज्योतिर्वसाना समना दिवो दुहितेवास्माभिः पुरस्तात् प्रत्यदर्शि यथाऽऽप्तो वीर ऋतस्य पन्थामन्वेति साधु प्रजानतीवोषा दिशो न मिनाति तद्वद्वर्त्तमानाः स्त्रियो वराः स्युः ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एषा) (दिवः) प्रकाशस्य (दुहिता) कन्येव (प्रति) (अदर्शि) दृश्यते (ज्योतिः) प्रकाशम् (वसाना) स्वीकुर्वती (समना) संग्रामे। अत्र सुपां स्वित्याकारादेशः। (पुरस्तात्) प्रथमतः (ऋतस्य) सत्यस्य कारणस्य (पन्थाम्) मार्गम् (अनु) (एति) (साधु) सम्यक् यथा स्यात् तथा (प्रजानतीव) यथा विज्ञानवती विदुषी (न) निषेधे (दिशः) (मिनाति) त्यजति ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सुनियमेन वर्त्तमाना सत्युषाः सर्वानाह्लादयति सोत्तमं स्वभावं न हिनस्ति तथा स्त्रियो गार्हस्थ्यधर्मे वर्त्तेरन् ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. नियमित असलेली उषा सर्वांना आनंदित करते व आपला उत्तम स्वभाव नष्ट करीत नाही तसे स्त्रियांनी गृहस्थाश्रमात वागावे. ॥ ३ ॥